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लोकतंकत्र में क्यों अभिव्यक्ति की आजादी का गला घोट रहें है हम।


कुछ लोगों के मुताबिक 2014 में जब चुनाव हुए तब भारत को एक ऐसा प्रधानमंत्री मिला जिसकी खोज हम सालों से कर रहें थे। ऐसा प्रधानमंत्री जो देश से ज्यादा विदेशों में रहते है और जिनको फोटो खिचवाना पंसंद है। इसका उदाहरण हम सोशल मीडिया पर वायरल हुए वीडिवो में देख चुके है। ऐतिहासिक जीत के बाद नई सरकार ने कई नये फैसलै लिए। कुछ फैसलों से जनता को परेशानी भी हुई। चाहे वो अचानक से नोटबंदी हो या जीएसटी।
नये सरकार के खिलाफ अभी तक घोटालों के गंभीर आरोप तो नहीं लगें है लेकिन इनको एक समुदाय के प्रति पक्षपात करने वाली पार्टी कहा गया है। कुछ दिनों पहले कैम्ब्रिज एनेलेटिका नाम की कंपनी के खिलाफ लोगों के निजी डेटा चुरा कर गलत तरीके से चुनावी समीकरण बदलने के आरोप लगे थे। जिस तरीके से भारतीय मीडिया पिछले कुछ सालों से चल रहीं है ये कहना गलत नही होगा कि कहीं न कहीं ये चुनावी प्रोपेगेंडा के तहत काम कर रही है।
जेएनयु वाले मसले को जिस तरह से कवर किया गया सिर्फ देश ही नही पुरे विश्व में गलत संदेश पहुचां। लोकतंत्र की सबसे खुबसुरत बात है अभिव्यक्ति की आजादी। हमारे देश में अलग-अलग विचारधारा के लोग रहते है फिर भी खुशहाल है, यही चीज तो हमारे देश को बाकि देशों से अलग और ज्यादा खुबसुरत बनाती है। लेकिन पिछले कुछ सालों में इस आजादी पर कुछ खास लोगों के द्वारा चुनावी खेल के लिए रोक लगाने की कोशिश की गयी है।
मानसिकता कुछ ऐसी बन गयी है कि अगर कोई समुह से अलग सोचता है तो गलत है। और जो गलत है उसे सही करने का जिम्मा उनके सर है। कई चीजें जो वाकई गलत है उनको ठीक करने की जिम्मेदारी कोई नही लेता। देश में बढतें हुए रेप को रोकने का जिम्मा कोई नही लेना चाहता लेकिन किसी की विचारधारा अलग है तो उसके नींद खराब करने वाले लोग कई है।
इस सोच को रोकने की सख्त जरुरत है क्योंकि ये सिर्फ देश का नुकसान ही कर सकता है। देश की छवि को विदेशों में बेहतर बनाने के लिए चीजों को बदलने का वक्त आ गया है। कही ऐसा न हो कि भारत को भी लोग पाकिस्तान जैसे नजरिए से देखने लगे।    

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