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अपने समाज की नाकामी का एक छोटा सा उल्लेख


काम ख्तम करने के बाद बस स्टैंड पर बैठ कर कान में ईयरफोन लगाए गाने सुनते सुनते अपनी बस का इंतजार कर रहा था। बस क्यों, क्योंकि उस स्टैंड से सीधे मेरे घर के लिए बस मिलती है तो मेट्रो का चक्कर नहीं पड़ता । मेट्रो का चक्कर मतलब पहले अपनी जगह से ई-रिक्शा के जरिए मेट्रो स्टेशन जाओ फिर प्रवेश करो, सीढियां चढों और फलाना ढिकाना, ईससे बेहतर सीधी बस पकड़ के घर आ जाओ।
अरे मैं तो प्रमुख मुद्दे से ही हट गया, दरअसल मैं आज ये इसलिए लिख रहा हु क्योंकि आज मैनें अपने समाज की बहुत बड़ी हार देखी। शुरुआत से आरम्भ करता हुं, जब मैं बस स्टैंड पर बैठा था तब एक लड़की ( लगभग 22 साल उर्म, औसत कद काठी ) बस स्टॉप तक आते आते रुक गयी । जहॉ तक मैं समझ पाया वो वहॉ इसलिए नहीं आयी क्योंकि वो असहज महसुस कर रहीं थी। लगभग 15 मर्द के भीड़ के आसपास आने से बेहतर उसने स्टैंड से 20 मीटर दुर रहना बेहतर समझा।
उस लडकी के डर में हमारी बहुत बडी नाकामी छुपी हुई है, हमने अपने समाज को इतना बदतर बनाया है कि हमारी माताएं और बहनें इतना संकोच करने पर मजबुर है। 15 मिनट तक, जब तक उसकी बस नहीं आयी वो मर्दाना नजरों से बचती रहीं।
आज का लेख इस चलन को बढावा देने के लिए बिलकुल नहीं है। महिलाओं को इन सब परिस्थितीयों का सामना बहादुरी से करना चाहिए और समाज के प्रचलन और वव्यहार को बदलना चाहिए।

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